भई प्रगट कुमारी भूमि-विदारी
जन हितकारी भयहारी ।
अतुलित छबि भारी मुनि-मनहारी
जनकदुलारी सुकुमारी ॥
सुन्दर सिंहासन तेहिं पर आसन
कोटि हुताशन द्युतिकारी ।
सिर छत्र बिराजै सखि संग भ्राजै
निज -निज कारज करधारी ॥
सुर सिद्ध सुजाना हनै निशाना
चढ़े बिमाना समुदाई ।
बरषहिं बहुफूला मंगल मूला
अनुकूला सिय गुन गाई ॥
देखहिं सब ठाढ़े लोचन गाढ़ें
सुख बाढ़े उर अधिकाई ।
अस्तुति मुनि करहीं आनन्द भरहीं
पायन्ह परहीं हरषाई ॥
ऋषि नारद आये नाम सुनाये
सुनि सुख पाये नृप ज्ञानी ।
सीता अस नामा पूरन कामा
सब सुखधामा गुन खानी ॥
सिय सन मुनिराई विनय सुनाई
सतय सुहाई मृदुबानी ।
लालनि तन लीजै चरित सुकीजै
यह सुख दीजै नृपरानी ॥
सुनि मुनिबर बानी सिय मुसकानी
लीला ठानी सुखदाई ।
सोवत जनु जागीं रोवन लागीं
नृप बड़भागी उर लाई ॥
दम्पति अनुरागेउ प्रेम सुपागेउ
यह सुख लायउँ मनलाई ।
अस्तुति सिय केरी प्रेमलतेरी
बरनि सुचेरी सिर नाई ॥
दोहा:
निज इच्छा मखभूमि ते प्रगट भईं सिय आय ।
चरित किये पावन परम बरधन मोद निकाय ॥
